Wednesday 28 August 2013


मोदी बानाम राहुल


नरेंद्र मोदी औ राहुल गांधी फिलहाल दोनों आम चुनाव के आखिरी मुकाबले में आमने-सामने हैं। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को भी अपने इन्हीं नेताओं से उम्मीद है। इससे एक धारणा को बल मिला है। वह यह कि 2014 का आम चुनाव व्यक्ति केंद्रित होगा। इस बार पहले के चुनावों की अपेक्षा पार्टी का महत्व और भी कम होगा। यही वजह है कि जैसे-जैसे 2014 नजदीक आ रहा है, एक तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री व भाजपा नेता नरेंद्र मोदी और दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष व युवराज राहुल गांधी दो ध्रुव के रूप में उभर रहे हैं। इन्हें पहले एक दूसरे से और फिर क्षेत्रीय क्षत्रपों से निपटना है। ऐसी परिस्थिति में दोनों नेताओं का विपक्षी पार्टी के निशाने पर होना अस्वाभाविक बात नहीं है। हां, जिन विशेषणों का इस्तेमाल हो रहा है, उसके तह में नई प्रवृत्तियां जरूर छुपी हुई हैं। ‘रैंबो’ और ‘मोगैंबो’ में कई अर्थ छुपे हैं। देश की जनता हॉलीवुड व बॉलीवुड के इन शब्दों को खूब समझती है। वहीं देश की जनता राहुल गांधी की समझ को भी परखना चाहती है, क्योंकि उनकी समझ को लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं।
बहरहाल, यह देखने में आ रहा है कि अवसर मिलते ही भाजपा नरेंद्र मोदी को हीरो बनाने के किसी भी मौके को नहीं चूकना चाहती। वहीं विपक्षी दल नरेंद्र मोदी को खलनायक साबित करने की जुगत करते रहते हैं। हाल की बात है। उत्तराखंड तबाही के बीच नेताओं का हवाई सफर शुरू हुआ तो दिल्ली में ‘रैंबो’ और ‘मोगैंबो’ जैसे शब्द चल पड़े। यह अब भी चर्चा में है। कांग्रेस महासचिव शकील अहमद ने चार जुलाई को कहा, “मैं तो हमेशा से कहता रहा हूं कि जिस तरह से कुछ लोग रैंबो बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वह जल्द ही मोगैंबो बन जाएंगे।” हालांकि, उन्होंने नरेंद्र मोदी का सीधे तौर पर नाम नहीं लिया, पर इशारा उन्हीं की तरफ कर रहे थे। आगे उन्होंने कहा, “ रैंबो और मोगैंबो जैसे कैरेक्टर फिल्मों में ही अच्छे लगते हैं, लेकिन भाजपा के लोग अपने एक नेता को रैंबो प्रोजेक्ट करने में लगे हैं। वे कहते हैं कि वह पहाड़ों में आता है और एक साथ 15,000 लोगों को बचाकर ले जाता है, यह बिल्कुल ही हास्यास्पद है। इससे उस शख्स का ही मजाक उड़ रहा है।” नरेंद्र मोदी पर यह पहले शब्द-वाण नहीं हैं। इससे पहले भी उन्हें कई विशेषणों से नवाजा जा चुका है। कांग्रेस नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने तो एक बार मोदी की तुलना रावण से कर डाली थी। केंद्र सरकार के मंत्री जयराम रमेश ने उन्हें भस्मासुर तक कहा था। राजनीतिक विश्लेषकों की राय है, “नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेसी नेताओं के ये तीखे तेवर इसलिए हैं, क्योंकि वे उन्हें अपने लिए सबसे बड़ी चुनौती मान चुके हैं।”
हालांकि, कांग्रेस पार्टी कहीं से भी इस बात को जाहिर होने देना नहीं चाहती है। वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी एक लेख से यह बात साफ होती है। उन्होंने एक लेख में कहा है, “नरेन्द्र मोदी के 'माइक्रोमैनेजमेंट' को लेकर पिछले दिनों कांग्रेस के जयराम रमेश ने कहीं कहा कि मोदी कांग्रेस के लिए वैचारिक और प्रबंधकीय चुनौती हैं। ये बात पार्टी को चुभ गई तो फौरन उसने अपने आप को इस वक्तव्य से अलग किया।” वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा है, “नरेंद्र मोदी मीडिया की उपज हैं। इस तथ्य पर से पर्दा अगले साल हटेगा।” देश के मझे हुए राजनेता शरद पवार भी कह चुके हैं कि उन्होंने ऐसे कई गुब्बारों को पचकते हुए देखा है। इससे साफ है कि नरेंद्र मोदी के लिए आम चुनाव बेहद चुनौतिपूर्ण है। वे सभी की निगाह में हैं। यही स्थिति कांग्रेस के युवराज की भी है। उनपर कई टिप्पणियां आ चुकी हैं। हाल फिलहाल समाजवादी पार्टी (सपा) के नेता एवं कैबिनेट मंत्री आजम खान ने राहुल गांधी को लंगूर तक कह डाला। कुछ मिलाकर देखा जाए तो दोनों नेता अन्य नेताओं के मुकाबले अधिक निशाने पर हैं।
इस बीच हर मोड़ पर नरेंद्र मोदी अपना असर छोड़ने में कामयाब हो रहे हैं, पर राहुल गांधी इसमें सफल नहीं हो पा रहे हैं। ‘निर्भया अभियान’ से लेकर उत्तराखंड आपदा तक राहुल गांधी जनता के बीच प्रभाव छोड़ने में असफल रहे। एक तरफ नरेंद्र मोदी को उनके विरोधी भी मजबूत प्रतिद्वंद्वी मानते हैं। स्वभाव से सख्त समझते हैं। वहीं राहुल गांधी को अपने बारे में कहना पड़ रहा है कि वे सख्त हैं।  बीते दिनों दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के मुख्यालय में उन्होंने कहा था, “मैं जैसा दिखता हूं, वैसा हूं नहीं। मेरी मां रहमदिल है लेकिन मैं दादी (इंदिरा गांधी) की तरह सख्त हूं। जिसके पीछे पड़ता हूं, उसे छोड़ता नहीं।” इसके बावजूद उनपर कोई यकीन करने को तैयार नहीं है। युवा राजनीतिक कार्यकर्ता विकास आनंद ने कहा कि राहुल गांधी के इस वाक्य से साफ है कि उन्हें भारतीय राजनीति में अभी और परिपक्व होना है। इस बात को कांग्रेस पार्टी भी समझने लगी है। संभवत: यही वजह है कि कांग्रेस के हालिया संगठनात्मक फेर-बदल में लोकसभा की 80 सीटों वाली उत्तर प्रदेश की डोर राहुल टीम से हटकर सोनिया गांधी की टीम के हाथों आ गई है। गुजरात के मधुसूदन मिस्त्री सूबे के प्रभारी बनाए गए हैं। वे अहमद पटेल के करीबी माने जाते हैं। कांग्रेस में अहमद पटेल की हैसियत किसी से छुपी नहीं है।
राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर रखने वाले लिख-बोल रहे है, “जिस निर्णायक स्थिति में नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी में हैं, कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद उस अंदाज में राहुल गांधी स्वयं को अबतक पेश नहीं कर पाए हैं। हालांकि, उनकी सक्रियता दिनों-दिन बढ़ी है, पर अधिक जगहों पर असफलता ही उनके हाथ आई है। इसके बावजूद कांग्रेस के पास जो एक चेहरा है, वह राहुल गांधी का ही है। यह कांग्रेस पार्टी की अपनी समस्या है।” दूसरी तरफ पूरी संभावना है कि नरेंद्र मोदी से यदि हल्की चूक भी होती है तो उनकी समस्या पार्टी के अंदर और बाहर बढ़ सकती है। उन्होंने अपने विश्वासी अमित शाह को उत्तर प्रदेश की कमान दिलवाई है। यह वह सूबा है जो भाजपा को 180 से आगे का आंकड़ा छूने में मदद पहुंचा सकता है। पिछले आम चुनाव में भाजपा को यहां से महज 10 सीटें ही मिल पाई थीं। इसके वोट प्रतिशत में भी 4.7 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी। राज्य विधानसभा चुनाव के नतीजे भी पार्टी के लिए निराशाजनक रहे हैं। अब मोदी के सामने चुनौती है कि वह मतदाताओं को इस बात के लिए तैयार करें कि आम चुनावों में वे स्थानीय मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय मुद्दों को भी ध्यान में रखें।
राजनीतिक जानकार के मुताबिक, “विकास का गुजरात मॉडल और अन्य राज्यों में उसकी संभावना आगामी आम चुनाव का मुख्य मुद्दा बन सकता है।” वरिष्ठ पत्रकार मार्क टुली ने भी कहा है कि मोदी को मतदाताओं को इस बात के लिए मनाना होगा कि आम चुनाव का सरोकार राष्ट्रीय मुद्दों से है और कोई राष्ट्रीय स्तर का नेता उनकी जिंदगी में बदलाव लाने के लिए सक्षम है। इसमें एक संभावना बनती है। यही वजह है कि नरेंद्र मोदी खुद को 'विकास पुरुष' के तौर पर पेश कर रहे हैं। वैसे तो युवाओं का एक बड़ा वर्ग इस बार मतदाता सूची में शामिल हो रहा है, लेकिन कांग्रेस के युवराज उसे प्रभावित करने में लगातार असफल हो रहे हैं। मोदी अपने प्रचार तंत्र से इन युवाओं तक पहुंचने में सफल हो रहे है। ‘सोशल मीडिया’ पर उनको फॉलो करने वालों की संख्या काफी ज्यादा है। राहुल गांधी यहां उसे पीछे हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि इन युवाओं को कौन अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल होता है। नरेंद्र मोदी के सेनापति एक तरफ भव्य राम मंदिर बनाने की बात कर रहे हैं। वहीं कांग्रेस अवसर के इंतजार में है। वह चाहेगी कि विकास और भ्रष्टाचार में से कोई मुद्दा न बने। अगर यह मुद्दा बनता है तो राहुल गांधी के लिए जगह-जगह जवाब देना मुश्किल होगा। सियासत के इन उबड़-खाबड़ रास्तों पर संतुलन साधना इन दोनों नेताओं के लिए आसान नहीं है। वैसे मोदी की टीम इस बात को लेकर चवन्नी भर निश्चिंत हो सकती है कि राहुल उनके मुकाबले उन्नीस ठहरते हैं। पर आगे चुनौतियां कम नहीं हैं
सुमित गुप्ता

यूपी में सपा का गुंडाराज


मुलायम के प्रधानमंत्री बनने के सपने पर फिर सकता है पानी

यूपी में समाजवादी पार्टी को बहुमत मिलने के बाद से ही जिस तरह से एक के बाद एक हिंसा की खबरें आ रही हैं उससे आशंका जताई जाने लगी है कि यूपी में कहीं गुंडाराज की वापसी तो नहीं हो रही है। 
अभी हाल ही में  कुछ दिन पूर्व ही  बछरावां के विधायक रामलाल अकेला के दो बेटों पर रायबरेली में जबरन जमीन पर कब्जा करने के इरादे से एक डॉक्टर के मकान को स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर ढहा दिया। वहीं, सीतापुर के विधायक महेंद्र सिंह को गोवा में पुलिस ने बार बालाओं के साथ गिरफ्तार किया था जिसके बाद सीएम नाराज चल रहे थे। महेंद्र सिंह समेत छह लोगों को गोवा में एक डांस बार में रंगरंगेलियां मनाते आपत्तिजनक स्थिति में पकडा गया था। छापे में पकडी गई छह लडकियों को पंजाब, दिल्ली, मुंबई, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ राज्यों से लाया गया था। राज्य में कानून व्यवस्था पूरी तरह से ठप हो चुकी है. लगातार हो रहे घटनाक्रमों ने न केवल प्रदेश में गुंडाराज की वापसी को और पुख्ता किया है बल्कि अखिलेश के सुशासन के सारे चुनावी वादों को भी धता बता दिया है.
अब सवाल यह उठता है कि क्या समाजवादी पार्टी को सत्ता देकर जनता ने गलती की है. 2012 विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव सपा की तरफ से मुख्य चेहरा थे. उत्तर प्रदेश की जनता भी विलायत से पढ़ कर आए अखिलेश से हजारों उम्मीदें लगाए बैठी थी कि यह राज्य में बदलाव लेकर आएंगे लेकिन उन्होंने वही नीति अपनाई जो उनके पूर्ववर्ती सरकारों ने अपनाई थी. अगर अखिलेश के पिछले डेढ़ साल के शासन पर नजर डालें तो राज्य में इस बीच कई सांप्रदायिक दंगे देख चुका है, डकैतों के पुराने गिरोह फिर से अपना सर उठा रहे हैं, लगातार हो रहे बलात्कार या शारीरिक उत्पीड़न की खबरों से भी सरकार की खासी किरकिरी हुई है. राज्य में हो रही लगातार ऐसी घटनाएं यह बताती हैं कि सूबे का नेतृत्व प्रभावशाली व्यक्ति के हाथ में नहीं है. बिगड़ती कानून-व्यवस्था अखिलेश यादव की अयोग्यता दर्शाती है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव जो आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं उस पर पानी फिर सकता है.
सुमित गुप्ता

देश की पहले नंबर अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल करेगा उत्तर प्रदेश 




देश के सबसे अधिक जनसंख्या वाले प्रदेश की हैसियत से उत्तर प्रदेश लोकतंत्र और विकास के किसी भी राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में ही रहेगा। अभिजात्य अर्थशास्त्रियों ने उत्तर प्रदेश को बीमारू और काऊबेल्ट का भाग बनाकर उपहास का पात्र बनाया था, लेकिन आज वे स्वयं इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए गए हैं। पिछली योजनावधि में उत्तर प्रदेश की विकास दर लक्ष्य से ऊपर रही है। प्रदेश की अर्थव्यवस्था का देश में दूसरा स्थान है। अगर वर्तमान सरकार ने अपने संकल्प को साकार करने की कोशिशें जारी रखीं तो उत्तार प्रदेश को बहुत खामोशी से देश की पहले नंबर की अर्थव्यवस्था का दर्जा भी मिल सकता है। इस प्रदेश में बहुत ऐसे सकारात्मक तत्व हैं, जिनको अनदेखा किया गया है। विकास के संदर्भ में यह पूरे देश के लिए एक शुभ संकेत होगा।
तेज विकास के लक्ष्य को पाने के लिए उत्तर प्रदेश पूरी तरह से सक्षम है। प्रदेश की एक विचित्र शक्ति यह है कि इसके सभी उप-क्षेत्रों की स्पष्ट पहचान जरूर है, इसके बाद भी पूरे प्रदेश में असाधारण प्रादेशिक समरसता है। पिछले चुनाव में तो खुद सरकारी दल ने प्रदेश के विभाजन को मुद्दा बनाने का प्रयास किया था, लेकिन इसके बाद भी किसी भी क्षेत्र की जनता ने प्रदेश विभाजन की माग का समर्थन नहीं किया। आश्चर्य का विषय यह है कि उत्तर प्रदेश में कभी भी राष्ट्रीय राजनीति को क्षेत्रीय राजनीति से अलग करके नहीं देखा गया। उत्तार प्रदेश को इस राष्ट्रवादी भावना के कारण काफी नुकसान भी सहना पड़ा।
उत्तर प्रदेश की लोकतात्रिक संस्कृति में सर्वागीण विकास के सूत्र छिपे हैं, लेकिन इन पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। यह प्रदेश स्वतंत्रता मिलने के बाद जमींदारी उन्मूलन के मामले में सबसे आगे रहा है। पूरे देश में यह अकेला प्रदेश है, जहा दलित नेतृत्व के किसी दल को स्पष्ट बहुमत मिला। यहा साप्रदायिक प्रभाव की बात की जाती है, लेकिन इस पक्ष पर कम ध्यान दिया गया कि प्रदेश के इतिहास में सर्वाधिक मुस्लिम विधायक होने के बाद भी कहीं कोई साप्रदायिक प्रतिक्रिया नहीं दिखाई देती है। प्रदेश की जनता ने हर संकट के समय स्वस्थ राजनीतिक संकल्प का परिचय दिया है। 1989, 1991, 1993 और 1996 में अस्थिर विधानसभाओं के अनुभव से सीखकर इसी मतदाता ने पिछले दो बार से एक दल को पूर्ण बहुमत दिया है। इन बातों का आशय यह है कि प्रदेश की जनता में और वर्तमान शासन में राजनीतिक परिपक्वकता है। दोनों स्तरों पर विकास की इच्छा दिखती है।
उत्तर प्रदेश के विकास से लोकतंत्र और विकास की सैद्धातिक मान्यता को ठोस व्यवहारिक रूप मिल सकता है। इस संदर्भ में सत्तारूढ़ दल के विकास के विचार की प्रशसा भी होनी चाहिए। इस विकास का दायरा व्यापक है और इसका चेहरा मानवीय है। इसी समझ के कारण प्रदेश सरकार ने कल्याणकारी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन पर भी जोर दिया है। प्रदेश को इन कार्यक्रमों के लिए पर्याप्त संसाधन जुटाने होंगे। इसके अतिरिक्त शासन को कृषि की उत्पादकता बढ़ाने पर और पूर्वाचल के आर्थिक पिछड़ेपन को समाप्त करने पर विशेष जोर देना होगा। सर्वागीण विकास के सपने को साकार करने के लिए आवश्यक है कि उत्तार प्रदेश मानवीय विकास सूचकाक के कई संकेतकों को सुधारने के लिए विशेष प्रयास करे। उत्तर प्रदेश का विकास भारतीय लोकतंत्र के आधार को अधिक मजबूत बनाएगा।
सुमित गुप्ता

Monday 26 August 2013


 लिखना कोई रोग है या मजबूरी?

आखिर हम लिखते क्यों हैं? लिखना कोई रोग है या मजबूरी या कुछ और? इससे क्या हासिल हो सकता है? इन सवालों पर आप क्या जवाब देंगे? लिखना कुछ भी हो सकता है। कोई जरूरी नहीं कि वह साहित्य ही हो। लिखने वाला नहीं जानता कि वह जो लिख रहा है, वह साहित्य के रूप में जाना जायेगा या नहीं फिर भी वह लिखता है। यह भी जरूरी नहीं कि लिखने का कोई उद्देश्य हो। कभी-कभी लिखना आदत जैसा होता है। बिना लिखे चैन नहीं मिलता, मन भटकता रहता है, अस्थिर बना रहता है, कुछ खोया-खोया सा लगता है। लिखने के एकदम पहले मन कहीं टिकता नहीं, कोई आ धमके तो उससे बात करने का जी नहीं होता, कोई बुला दे तो गुस्सा आता है। 


कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो लिखने के पहले उसके ढांचे, उसकी भाषा, उसके प्रभाव, उसके उद्देश्य पर गौर करते हैं। उनका लिखना नियोजित होता है। जैसे कोई खंडकाव्य, महाकाव्य या चरित काव्य लिख रहा है तो पूरा इतिवृत्त उसके सामने है। उस पर पहले भी बहुत कुछ लिखा गया है, इसलिए उसका व्यापक संदर्भ भी मौजूद है। अगर केवल काव्य-रुपांतरण करना है, कहानी याद भर दिलानी है तो कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए कि तब लेखन यांत्रिक हो जायेगा। बुद्धि केवल शिल्प पर केंद्रित रहेगी। यह तीसरे दर्जे का लेखन है क्योंकि इसमें अपने भीतर का स्फुलिंग काम नहीं आयेगा, अपनी मेधा की चमक प्रकट नहीं होगी। जब दृष्टि उधार की हो तब ज्यादा कुछ करना नहीं होता। आप कहेंगे कि वाल्मीकि ने रामायण लिख दी थी फिर तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखकर तीसरे दर्जे का काम किया। नहीं, यही तो मैं बताना चाहता हूं। तुलसी वाल्मीकि से भी बड़े हो गये क्योंकि उन्होंने न केवल इतिवृत्त में परिवर्तन किया बल्कि सारे पात्रों को नयी युगानुरूप दृष्टि दी। यही उन्हें बड़ा बनाती है। अगर आप यांत्रिक होकर अनुकरण नहीं करते हैं और रचना को अपनी सार्थक युगीन दृष्टि दे पाते हैं तो वह अपने-आप बोलेगी, बड़ी नजर आयेगी। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप के पास वह दृष्टि है भी या नहीं।



साहित्य से इतर भी लिखना होता है। सामाजिक, राजनीतिक जड़ता के खिलाफ, भ्रष्टाचार के खिलाफ, लोगों की तटस्थता के खिलाफ, सामाजिक विषमताओं के खिलाफ, सरकारी उदासीनता के खिलाफ और जो कुछ भी सड़ता, बजबजाता, गंधाता दिखायी पड़ता है, उसके खिलाफ। ऐसा लेखन पत्रकारीय भी हो सकता है और साहित्यिक भी। ज्यादातर स्वतंत्र और चेतन पत्रकार परिवर्तन के लिए लिखते हैं। यह अलग बात है कि उनका लेखन नियोजित और संस्थागत पत्रकारिता से निकलती तमाम परस्परविरोधी और अलक्षित आवाजों के बीच बहुत असर नहीं दिखा पा रहा है। पूंजी से नियंत्रित मीडिया ने जिस व्यावसायिक लेखन को प्रश्रय और विस्तार दिया है, उसकी तो चर्चा भी बेमानी है। वह तो सिर्फ धन कमाने का जरिया है। पत्रकारों को इसलिए लिखना होता है क्योंकि उन्हें इसके लिए वेतन मिलता है। एक साहित्यकार खबरों में अपने युग को ढूढ़ता है और यही बोध उसे साधारण पत्रकारीय फलक से ऊपर ले जाता है। 



कुछ भी अंट-शंट लिखना हो तो कोई बात नहीं लेकिन उच्च कोटि की रचना लिखी या कही नहीं जाती। मशहूर कथाकार डा. प्रेम कुमार का मानना है कि वह सिर्फ होती है, भीतर चेतन के सबसे ऊर्जस्वित क्षेत्र में एक विस्फोट की तरह पैदा होती है और विद्युत की तरंगों की तरह विस्तार ग्रहण करती है। जिसके भीतर से रचना जन्म लेती है, उसे पता ही नहीं चलता। भाव की आत्यंतिक उत्कटता और विचार का सघन प्रवाह उसे आगे बढ़ाता है और एक छोर से दूसरे छोर तक नदी की धार की तरह बहा ले जाता है। 



जैसे बादल का बरसना कोई एक दिन की प्रक्रिया नहीं होती। गर्मी सागर की सतह से वाष्प पैदा करती है। यह वाष्प ऊपर उठती है। सागर की इतनी विशाल सतह से उठती वाष्प उमड़ती-घुमड़ती हुई हवा के साथ बहती चली जाती है। दूर खड़ा एक पहाड़ उसे रोक देता है, ऊपर की ठंड उसे पानी में बदल देती है। हम बारिश देखते हैं तो सागर तक कहां पहुंचते? इसी तरह मनुष्य के भीतर विशाल आकाश में बाहर के समाज, देश और परिस्थिति की विडंबनाओं से पैदा हुए विचार और भाव के बादल सघन से सघनतर होते जाते हैं। समय का कोई क्षण उसमें विस्फोट पैदा कर देता है, उसे पिघला देता है और अतिचेतन से रचना बरसने लगती है। रचनाकार के सामर्थ्य से उसके भीतर स्थित कला स्वयं ही उसे धारण लेती है। बरसते मेघ का पानी जैसे घट में ठहर जाता है, वैसे ही रचना रचनाकार की मेधा में बुनी हुई संश्लिष्ट कला में उतरकर ठहर जाती है। यह साधारण आदमी के वश की बात नहीं। जो रचता है, उसे भी नहीं मालूम होता कि रचना आखिर कैसे हुई। इसलिए कहना पड़ेगा कि लिखना तो नियोजित कारोबार है लेकिन रचना स्वत:स्फूर्त कलात्मक स्फोट। वह रचनाकार की संवेदना, उसकी दृष्टि और उसके हेतु में स्वयं ही लिपटकर बाहर आती है। श्रेष्ठ रचना स्वयं ही स्वयं को रचती है, तभी तो वह केवल होती है।
सुमित गुप्ता
छह दशक लंबे संघर्ष का नाम है तेलंगाना

आखिर तेलंगाना राज्य के सृजन की घोषणा हो ही गई। इस पिछड़े क्षेत्र के लोगों का 60 वर्ष पुराना सपना साकार हो गया है जबकि समृद्ध आंध्र क्षेत्र को इससे नुक्सान हुआ है। कई वर्षों तक डगमगाने के बाद कांग्रेस पार्टी ने भारी जोखिम उठाया लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि भारत के इस 29वें राज्य के सृजन से क्या समस्या हल हो जाएगी? लगता तो ऐसे है कि कांग्रेस के सामने कई और समस्याएं मुंह बाए खड़ी हो जाएंगी।

आंध्र प्रदेश भाषायी आधार पर गठित किया जाने वाला देश का प्रथम  राज्य था जो 1953 में तत्कालीन मद्रास प्रैजीडैंसी में से काटकर बनाया गया था। इसकी राजधानी कुरनूल थी। 1956 में जब राज्य पुनर्गठन अधिनियम लागू हुआ तो हैदराबाद रियासत और आंध्र राज्य को मिलाकर नवम्बर 1956 में वर्तमान आंध्र प्रदेश अस्तित्व में आया। अब देश का 29वां राज्य तेलंगाना इसमें से काटकर सृजित करने का प्रस्ताव है।

बेशक छोटे राज्य का सृजन एक अच्छी बात है लेकिन तेलंगाना पर फैसला एक जुआ ही है जो दूरदृष्टिविहीन निर्णय सिद्ध हो सकता है। कांग्रेस मुख्य तौर पर यह मानकर चल रही है कि 2014 के चुनाव में होने वाले नुक्सान की अन्य ढंगों से भरपाई कर लेगी। पार्टी को आस है कि प्रस्तावित तेलंगाना राज्य में यदि टी.आर.एस. प्रमुख चंद्रशेखर राव अपने वायदे के अनुसार अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर लेते हैं तो 17 लोकसभा सीटों में से यह 15 सीटे जीत जाएगी। लेकिन लगता तो ऐसा है कि यह आंध्र प्रदेश की सभी की सभी 42 सीटों से हाथ धो बैठेगी। जहां तक विधानसभा सीटों का सवाल है आंध्र में कांग्रेस का पूरी तरह सफाया हो जाएगा। हालांकि यह लंबे समय से पार्टी का गढ़ चला आ रहा है।

देखने को तो बेशक तेलंगाना क्षेत्र में बहुत जश्न मनाया जा रहा है लेकिन इस नव सृजित राज्य में भी कांग्रेस पार्टी, यू.पी.ए. सरकार और राज्य सरकार को अनेक प्रकार की चुनौतियों का सामना करना होगा। ये चुनौतियां आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही प्रकार की होंगी।

जो राजनीतिक उथल-पुथल दस्तक दे रही है वह कांग्रेस के लिए बहुत महंगी सिद्ध हो सकती है। जैसा कि 60 और 70 के दशक में तेलंगाना और आंध्र आंदोलनों के दौरान हुए टकरावों में हम देख चुके हैं, अब की बार भी जबरदस्त राजनीतिक प्रतिरोध हो सकता है। फिलहाल एकीकृत आंध्र प्रदेश के समर्थक गुस्से में उबल रहे हैं जो हिंसा में परिवर्तित हो सकता है।

हिंसा का पूर्वाभास करते हुए केन्द्र सरकार ने पहले ही यहां अधिक सुरक्षा बल तैनात कर दिए हैं। कोई भी दावे से नहीं कह सकता कि रोष प्रदर्शन क्या दिशा धारण करेंगे। स्वार्थी हितों वाले लोग किसी भी क्षण इस आंदोलन में कूद सकते हैं जो आग में घी का काम करेंगे। आंध्र क्षेत्र के अमीर निवेशकों द्वारा रोष प्रदर्शनों का समर्थन करने का एक कारण यह है कि अंततोगत्वा आंध्र प्रदेश के हाथों से हैदराबाद निकल जाना है। यदि हिंसा फैलती है तो इसकी परिणति अमन-कानून की समस्या और परिणामस्वरूप राष्ट्रपति शासन लागू होने में हो सकती है।

दूसरी बात यह कि तेलंगाना के सृजन का अन्य राज्यों पर प्रभाव बहुत चिंताजनक हो सकता है क्योंकि देश के कई भागों में आंदोलन शुरू हो जाएंगे। आंध्र प्रदेश में ही रायलसीमा क्षेत्र के लोगों ने तेलंगाना फैसले से प्रभावित होकर अलग राज्य की मांग शुरू कर दी है। पश्चिम बंगाल में गोरखा लैंड आंदोलन दोबारा शुरू हो गया है। असम में बोडोलैंड की मांग फिर जोर पकड़ गई है। कांग्रेस कार्य समिति के मुकुल वासनिक जैसे सदस्यों ने अलग विदर्भ राज्य की मांग उठाई है।

उधर नागर विमानन मंत्री अजित सिंह हरित प्रदेश की लंबे समय से स्थगित अपनी मांग फिर से उठा सकते है। बसपा सुप्रीमो मायावती भी तेलंगाना फैसले से प्रेरित होकर उत्तर प्रदेश को 4 राज्यों में बांटने की मांग जोर-शोर से उठाएंगी। इसी प्रकार सौराष्ट्र, कच्छ, लद्दाख एवं कई अन्य छोटे राज्यों के लिए मांग उठेगी। इन मांगों से निपटने का एक तरीका यह है कि केन्द्र सरकार  छोटे राज्यों के सृजन के पूरे मुद्दे पर चिंतन-मनन करने के लिए नए सिरे से राज्य पुनर्गठन आयोग स्थापित करे क्योंकि कांग्रेस ने तेलंगाना फैसले से भानुमति का पिटारा खोल दिया है।

तीसरा मुद्दा है आर्थिक चुनौतियों और नवसृजित आंध्र एवं तेलंगाना के बीच सम्पत्तियों के बटवारे का। दोनों ही राज्यों के लोगों का भाग्य प्रभावित होगा। आंध्र प्रदेश का वर्चस्व समाप्त होने वाला है। संयुक्त आंध्र प्रदेश के पक्षधर छाती ठोक कर दावा करते रहे हैं कि प्रदेश सरकार गरीबी की दर 9.2 प्रतिशत तक लाने में सफल रही है जोकि राष्ट्रीय औसत के आधे से भी कम है। 

हैदराबाद को लेकर अनेक चिंताएं हैं जिनका पूरी तरह निवारण होना बाकी है। रियल एस्टेट को लेकर भी चिंताएं हैं क्योंकि राजनीतिक अस्थिरता से इनकी कीमतों में भारी गिरावट आ सकती है। क्या हैदराबाद में नया विदेशी निवेश हो पाएगा? क्या तेलंगाना सृजित होने के बाद भी यह सूचना टैक्नोलॉजी कम्पनियों का गढ़ बना रहेगा? इन सवालों का अभी तक कोई जवाब नहीं मिला।

चौथी समस्या यह है कि छोटे राज्यों के पक्ष में हवा तो चल रही है लेकिन इसमें राजनीतिक अस्थिरता का खतरा भी छिपा हुआ है। पूर्वोत्तर के छोटे-छोटे राज्यों में लंबे समय से हम यह स्थिति देख रहे हैं। क्या तेलंगाना का सृजन क्षेत्रवाद को मजबूत करेगा एवं राजनीतिक तंत्र को कमजोर करेगा?

यदि विकास की बात करें तो हम देखते हैं कि झारखंड, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर के बहुत से राज्यों की कारगुजारी संतोषजनक नहीं जबकि हिमाचल प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्य खूब फल-फूल रहे हैं। यह तेलंगाना पर निर्भर करता है कि उसने कौन से रास्ते का अनुसरण करना है।

पांचवीं आशंका है कि नक्सलवादियों से भरा पड़ा तेलंगाना क्षेत्र पूरी तरह उनके हाथों में जा सकता है। संयुक्त आंध्र प्रदेश के पक्षधरों ने भी जो दलीलें दी हैं उनमें यह प्रमुख है। देश के तीसरे हिस्से में पहले ही नक्सलियों का प्रभाव है। वैसे यदि नक्सली मुख्यधारा में आने और चुनाव लडऩे का फैसला करते हैं तो यह एक शुभ शकुन ही होगा लेकिन वे खतरनाक भी सिद्ध हो सकते हैं।

तेलंगाना अब क्योंकि एक वास्तविकता बन गया है इसलिए भविष्य के मद्देनजर उन नेताओं पर भारी जिम्मेदारी आ गई है जिन्होंने इसके लिए संघर्ष किया। उन्हें लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरना होगा और राज्य को आगे ले जाना होगा। उन्हें सभी को साथ लेकर चलते हुए दृढ़ता से नए राज्य का विकास करना होगा। जहां तक वर्तमान वास्तविकता की बात है कोई भी ऐसा दूरदर्शी नेता दिखाई नहीं देता जो इस पैमाने पर पूरा उतर सके। तेलंगाना क्षेत्र में कांग्रेस के पास कोई प्रभावी नेता नहीं जबकि टी.आर.एस. में  इसके  प्रमुख  चंद्रशेखर के बेटे, बेटी और भतीजे का ही वर्चस्व है।

कांग्रेस पार्टी ने बहुत जोखिम उठाते हुए तेलंगाना राज्य का सृजन करने का फैसला किया है लेकिन इसका तात्कालिक कारण चुनावी लाभ लेना ही है। फौरी तौर पर कांग्रेस यही सोच रही है कि आंध्र प्रदेश में जनाधार खिसकने के रूप में उसे जो नुक्सान हुआ है तेलंगाना का दाव खेलकर किसी हद तक उसकी भरपाई की जा सके। 
सुमित गुप्ता

 भगवा लहर पैदा करने की कोशिश

इसे संयोग कहें या समय का फेर अथवा फिर इतिहास का खुद को दोहराना, पर आज की अनेक घटनाएं भारत को नब्बे के दशक में घसीट कर ले जा रही हैं। ये घटनाएं आर्थिक परिस्थितियों से लेकर फिल्म जगत और भारत के पास-पड़ोस के कालकम से जुड़ी हैं और आज वही हो रहा है जो कभी नब्ब के दशक में हो चुका है।  कहते हैं जो लोग इतिहास भूल जाते हैं, उन्हें इतिहास को फिर से दोहराना पड़ता है। क्या यही कहावत तो भारत के सामने साकार नहीं हो रही है।
लगभग 23 साल बाद फिर ‘राम’ के नाम पर भगवा लहर पैदा करने की कोशिश हो रही है. हमें याद है वर्ष 1990 में अयोध्या में कारसेवा के नाम पर धार्मिक भावनाओं को उभारकर दक्षिण भारत सहित अन्य अनेक हिंदीभाषी राज्यों से कारसेवकों को अयोध्या बुलाया गया था. उस दौरान आडवाणी की रथयात्रा ने आग में घी डालने का काम किया था. फलत: किसी अनहोनी से बचने के लिए सरकार ने काफी सख्ती की थी, जिसकी बहुसंख्यकों हिंदुओं में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी. परिणामस्वरूप भाजपा के पक्ष में बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण हुआ था. इस बार भी कुछ वैसा ही खतरनाक खेल खेलने की कोशिश है.
ऐसे में सरकार को विहिप के इस कार्यक्रम को भोथरा करने के लिए चतुराई का परिचय देना होगा. उसे विहिप को प्रतिक्रिया का कोई मौका नहीं देना होगा. परिक्रमा मार्ग से सटे गांवों में बाहरी राज्यों से आए लोगों को जुटने नहीं देना चाहिए. साथ ही बहुसंख्यकों को यह समझाने की कोशिश होनी चाहिए कि विहिप राममंदिर निर्माण को लेकर उतनी आतुर नहीं है, जितनी उसे भाजपा को केंद्र की सत्ता में देखने की ललक है. सरकार के अलावा धर्मनिरपेक्ष लोगों को भी एकजुट होकर विहिप के इस धार्मिक आंदोलन के सच से जनता को अवगत कराना चाहिए ताकि इसे जनसमर्थन न मिल सके और सामाजिक समरसता को बिगड़ने से रोका जा सके.
संघ ने पिछले दिनों जिस तरह सारे विरोधों को दरकिनार कर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान की कमान सौंपी थी, उससे लग गया था कि चुनाव से पूर्व वह ‘राममंदिर’ निर्माण का धार्मिक कार्ड खोलेगा. हुआ भी वैसा ही. मोदी के कहने पर उनके साथी किंतु दागी अमित शाह को उप्र का प्रभार सौंपा गया. उन्होंने इस नई जिम्मेदारी के साथ ही राममंदिर का राग अलापना शुरू कर दिया था. मोदी को कट्टर हिंदूवादी चेहरा माना जाता है. वह इसे बनाए रखना चाहते हैं और उसे वह अपनी सियासी ताकत मानते हैं. इसीलिए 2014 के आम चुनाव में भाजपा धार्मिक कार्ड खेलने जा रही है. संघ और भाजपा के कुछ रणनीतिकारों का मानना है कि किसी अन्य मुद्दों के  सहारे भाजपा के पक्ष में देशव्यापी लहर पैदा नहीं की जा सकती. धार्मिक एजेंडा ही इसके लिए आसान राह है.
यद्यपि मोदी अपने भाषणों में गुजरात के विकास मॉडल की तारीफ करते थक नहीं रहे हैं किंतु संघ को ‘विकास’ के सवाल पर किसी चुनावी करिश्मे की उम्मीद नहीं है. यद्यपि देश में विकास के नाम पर राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ है. बिहार की जदयू सरकार इसका उदाहरण है. इतना ही नहीं, भाजपा की मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारें विकास कार्यक्रमों के सहारे ही सत्ता में है. दिल्ली में शीला दीक्षित की कामयाबी के पीछे विकास की ही राजनीति है. फिर राजनीतिक दल नीतियों और कार्यक्रमों के सहारे चुनावों में जाने से क्यों डरते हैं? सच यह है कि राजनीतिक दलों का मानस बन गया है कि ‘विकास’ के नाम पर वोट नहीं मिलता.
नेताओं के एक बड़े वर्ग का मत है कि वोट जाति, धर्म, संप्रदाय और क्षेत्रवाद के नाम पर ही मिलता है. इसीलिए चुनाव से पहले राजनीतिक दल जो कुछ भी कहें किंतु चुनाव आते-आते चुनाव की धुरी इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द घूमने लगती है. असल सवाल पीछे छूट जाते हैं. इस बार भी भाजपा सत्तारूढ़ कांग्रेस की नाकामियों को जनता के बीच ले जाने की जगह धर्म की आंधी चलाने की कोशिश में है. यह भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए अशुभ संकेत है.
भाजपा को देश का मानस समझना चाहिए. आज का युवा मतदाता काफी जागरूक है. अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक युवाओं के समक्ष बेहतर शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार की चुनौती है. वे देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था तथा महंगाई को लेकर चिंतित हैं. उन्हें पता है कि सामाजिक कटुता और सांप्रदायिकता का दंश देश को  खोखला करेगा. वे सुरक्षित समाज में अमन से रहना चाहते हैं. ऐसे में भाजपा को अतिवाद की यह राजनीति उसे उल्टी पड़ सकती है.
वैसे भाजपा से देश के युवा और मध्यवर्ग को चुनाव में घिसे-पिटे मुद्दों से अलग हटकर नई शुरुआत की उम्मीद थी. वह इसीलिए मोदी के प्रति आकषिर्त भी था. किंतु संघ ने जन का मन समझे बगैर जो धार्मिक कार्ड खेला है, उससे मतदाताओं में निराशा हुई है. ऐसे में बहुसंख्यकों को संयम और बड़े मन का परिचय देना होगा. एक बार वे फिर कसौटी पर हैं. समाज के अन्य सभी वर्गों के लोग उनकी तरफ देख रहे हैं. इसलिए विहिप के राजनीति प्रेरित ऐसे कार्यक्रमों को सहयोग और समर्थन नहीं मिलना चाहिए. यदि कहीं भावना में बहकर कोई चूक हुई तो वह बड़ी त्रासदी होगी. यह देश के लिए कतई शुभ नहीं होगा.
सुमित गुप्ता

Monday 12 August 2013

आज 12 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय युवा दिवस है। पूरे विश्व में हर क्षेत्र में भारत का युवा अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहा है। अपनों से दूर विदेश की धरती पर करियर को परवान चढ़ा रहे इन युवाओं में अपनी माटी की कसक साफ दिख रही है।
युवा शक्ति का जिक्र हो तो आमतौर पर उसे गलत संदर्भ में पेश किया जाता है। युवाओं को अराजकता, हुड़दंग और 'कोई कहे, कहता रहे' जैसे अर्थों में समझा जाता है। लेकिन यह सोच पूरी तरह गलत है। युवा ही परिवर्तन लाते हैं। ऐसा इसलिए कि युवाओं की सोच नई होती है। युवा यह नहीं सोचता कि क्या होना चाहिए, बल्कि यह सोचता है कि क्या हो सकता है।
युवा होने का मतलब केवल बीयर पीना या तेज बाइक चलाना नहीं है, जैसा कि आम तौर पर समझा जाता है। वे युवा ही थे, जो अन्ना के आंदोलन की मुख्य ताकत बने। वे युवा ही थे, जिन्होंने रंग दे बसंती फिल्म के लिए लिखे मेरे गाने 'अभी-अभी हुआ यकीं कि आग है मुझमें कहीं' को पसंद किया और युवा शक्ति पर केंद्रित उस फिल्म को हिट कराया। इसलिए यह मानना कि युवाओं में गहराई नहीं होती या वे गंभीर नहीं होते, सही नहीं है।

आंधी आये, तूफ़ान आये, लक्ष्य  साधे रखना ,
आशाओं का दीप तुम, दिल में जलाये रखना
दुःख सुख की धूप छाँव का डट कर हो सामना
मिलते न फूल सर्वदा काँटों से भी होता गुजरना

उम्मीदों के समंदर में गोते लगाये रहना
आशाओं का दीप तुम, दिल में जलाये रखना
सुमित गुप्ता